सचिन जैन
मंदसौर। शहर की सड़कों पर इन दिनों एक नन्हीं सी बच्ची, जो शायद उम्र में आठ से दस साल की होगी, रस्सी पर मौत का करतब दिखाती नजर आ रही है। उसकी मासूम आंखों में एक अलग चमक है, लेकिन उसके करतब के पीछे छिपी उसकी मजबूरी और दर्द को शायद ही कोई देख पाता है। देशभक्ति के गीतों की धुन के साथ, वह बच्ची किसी सर्कस की कलाकार नहीं, बल्कि अपने परिवार की भूख मिटाने का साधन बन गई है।

जहां एक ओर राहगीरों के लिए यह करतब एक तमाशा है, वहीं दूसरी ओर इस बच्ची और उसके परिवार के लिए यह दो वक्त की रोटी जुटाने का जरिया है। लोग उसे देख कर कुछ पैसे दे देते हैं, शायद इस उम्मीद में कि उनकी ये छोटी सी मदद उस परिवार का पेट भर देगी। लेकिन असल सवाल यह उठता है कि क्या यह बच्ची और उसके जैसे अन्य बच्चों को सरकार की योजनाओं का लाभ मिल रहा है? क्या ‘स्कूल चलो अभियान’ और गरीबी उन्मूलन योजनाएं इन तक पहुंच पा रही हैं?
मंदसौर के अलग-अलग क्षेत्रों में ऐसे कई परिवार अपने बच्चों से इस तरह के करतब करवा रहे हैं। इनकी हालत देखकर यह सवाल उठता है कि आखिर यह परिवार शिक्षा और बेहतर जीवन की दिशा में क्यों नहीं बढ़ पा रहे? क्या सरकार की योजनाएं इनकी पहुंच से दूर हैं, या फिर ये लोग अपने अधिकारों से वंचित रह गए हैं?

यह तस्वीर महज एक तमाशा नहीं, बल्कि समाज की और सरकार की असफलता की एक कड़वी हकीकत है। यह बच्ची जिस रस्सी पर चलकर करतब दिखा रही है, वह दरअसल उस पतली रेखा पर चल रही है जहां एक ओर बचपन है और दूसरी ओर जिम्मेदारियों का बोझ।
क्या हम इस बच्ची को उसका बचपन लौटा सकते हैं? क्या सरकार इन परिवारों को योजनाओं का लाभ पहुंचा सकती है ताकि इनके बच्चे स्कूल जा सकें, न कि सड़कों पर मौत का खेल दिखाने को मजबूर हों?
यह तमाशा नहीं, एक चीख है—जो उस बच्ची के मासूम चेहरों के पीछे छिपी है। अब यह हम पर है कि हम इसे अनदेखा करते हैं, या फिर इसके समाधान की दिशा में कोई कदम उठाते हैं।