भुजरिया पर्व: प्रकृति प्रेम और खुशहाली का प्रतीक

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मंदसौर। रक्षाबंधन के दूसरे दिन, विशेष रूप से भुजरिया पर्व धूमधाम से मनाया मनाया जाएगा। यह पर्व अच्छी बारिश, समृद्ध फसल और सुख-समृद्धि की कामना के साथ जुड़ा हुआ है। भुजरिया, जिसे कजलियों का पर्व भी कहा जाता है, श्रावण मास की पूर्णिमा के अगले दिन मनाया जाता है।गवली ग्वाला समाज के पटेल टेकचंद राठौर ने बताया कि समाज द्वारा भुजरिया पर्व के दौरान गवली ग्वाला समाज की महिलाएं सिर पर भुजरियों की टोकरी लेकर ढोल-नगाड़ों और पारंपरिक गीतों के साथ शिवना नदी इनका विसर्जन करती हैं। वहीं पुरुष नाचते गाते हुवे बाना खेलते हुवे चलते हैं।यह पर्व न केवल प्रकृति प्रेम और हरियाली की खुशियां मनाने का अवसर है, बल्कि एक दूसरे से मिलकर आशीर्वाद देने और प्राप्त करने का भी समय होता है।

भुजरिया का महत्व और परंपराएं

भुजरिया पर्व पर सावन के महीने में गेहूं या जौ के दानों को छोटी बांस की टोकरियों में मिट्टी की तह पर बोया जाता है और इन्हें रोजाना पानी दिया जाता है। लगभग एक सप्ताह में ये पौधे उग आते हैं, जिन्हें भुजरियां कहा जाता है। इसके बाद, इन भुजरियों की पूजा की जाती है और अच्छी फसल की कामना की जाती है। श्रावण पूर्णिमा तक ये पौधे चार से छह इंच की हो जाती हैं, जिन्हें रक्षाबंधन के अगले दिन एक-दूसरे को शुभकामनाओं के साथ भेंट किया जाता है।

भुजरिया की ऐतिहासिक कथा

भुजरिया पर्व की एक महत्वपूर्ण कथा महोबा के राजा आल्हा-ऊदल की बहन चंदा से जुड़ी है। कहा जाता है कि जब चंदा श्रावण माह में ससुराल से मायके आई, तो नगरवासियों ने कजलियों से उनका स्वागत किया। इस कथा के अनुसार, महोबा के वीर सपूतों ने दिल्ली के राजा पृथ्वीराज की सेना से लड़ाई की और महोबे को जीतने के बाद कजलियों का पर्व विजयोत्सव के रूप में मनाया जाने लगा।

भुजरिया पर्व समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है, जो आज भी उस ऐतिहासिक वीरता और प्राकृतिक समर्पण की याद दिलाता है। इस पर्व के माध्यम से लोग एक दूसरे को सुख-समृद्धि और हरियाली का आशीर्वाद देते हैं।

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